आज के भारत में ये सवाल सियासत से परे नहीं है लेकिन ये सच है कि आर्यों को लेकर कोई एक राय नहीं है.
बीसवीं सदी तक माना जाता रहा कि इंडो-यूरोपीय भाषा बोलने वाला ये समूह मध्य एशिया से तकरीबन 2000-1500 ईसा पूर्व भारत आया होगा.
मतभेद इस बात पर रहा कि ये लोग हमलावर थे या फिर फिर भोजन के बेहतर मौके तलाशने वाले घुमंतु. पिछले 2 दशकों में आर्यों को भारतीय का मूल निवासी बताने वाली थ्योरी ने भी ज़ोर पकड़ा है.
ब्रिटेन की हडर्सफील्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मार्टिन पी रिचर्ड्स की अगुवाई में 16 वैज्ञानिकों के दल ने सच जानने के लिए मध्य एशिया, यूरोप और दक्षिण एशिया की आबादी के वाई-क्रोमोज़ोम का अध्ययन किया. वाई-क्रोमोज़ोम सिर्फ पिता से पुत्र को मिलता है.
इस शोध के मुताबिक कांस्य युग (3000-1200 ईसा पूर्व) में पलायन करने वालों में ज़्यादातर पुरुष होते थे.
पिछले साल मार्च में छपे इस रिसर्च पेपर ने लिखा है, 'हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि स्त्रियों के जीन्स लगभग पूरी तरह देसी हैं और 55 हज़ार पहले यहां बसे पहले इंसानों से काफी मेल खाते हैं लेकिन पुरुषों के जीन्स अलग हैं जिनका ताल्लुक दक्षिण-पश्चिम एशिया और मध्य एशिया से रहा है.'
हालांकि शोध का दावा है कि पलायन का ये सिलसिला हज़ारों साल तक चला होगा.
अगर आर्य वाकई मध्य एशिया के कैस्पियन सागर के आसपास घास के मैदानों से निकलकर दक्षिण एशिया आए होंगे तो बहुत मुमकिन है कि उनका रास्ता गिलगित-बल्टिस्तान से होकर गुज़रा हो.
गैलसन भी ब्रोकपाओं के डीएनए की जांच के लिए कोशिश कर रहे हैं.
उनका भी मानना है कि इस विषय पर अभी और पड़ताल की ज़रूरत है. 'आर्यों की ऐतिहासिक छवि विजेताओं की रही है. यही वजह है कि आज के ब्रोकपा युवाओं में इस पहचान को लेकर उत्साह बढ़ा है लेकिन हम मानते हैं कि इस दावे की और ज़्यादा खोजबीन की ज़रूरत है.'
इंटरनेट के आने के बाद ब्रोकपाओं की इस पहचान ने दुनिया भर के लोगों का ध्यान खींचा है. इन गांवों में जर्मन महिलाओं के 'शुद्ध आर्य बीज' की चाह में यहां आने के किस्से मशहूर हैं.
साल 2007 में फिल्मकार संजीव सिवन की डॉक्यूमेंटरी में एक जर्मन महिला कैमरे पर ये बात स्वीकार करती सुनी जा सकती है.लेकिन बटालिक में दुकान चलाने वाले इस समुदाय के एक शख्स ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, 'एक जर्मन महिला ने कई साल पहले मुझे लेह के होटलों में अपने साथ रखा. गर्भवती होने के बाद वो महिला जर्मनी वापस लौट गई. कुछ साल बाद वो अपने बच्चे के साथ मिलने वापस भी आई थी.'रोकपाओं की मौजूदा पीढ़ी में पढ़ाई पर ख़ासा ज़ोर है. लड़कियों को पढ़ने और करियर बनाने के लिए बराबरी के मौके मिलते हैं लेकिन नौकरियां सीमित हैं.
कमाई का सबसे बड़ा ज़रिया या तो खुबानी की बाग़वानी या फिर सेना और बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन से मिलने वाली मज़दूरी है.
बिजली अब भी सुबह-शाम सिर्फ एक घंटे रहती है. लेकिन जैसे-जैसे सैलानियों की आमद बढ़ रही है, तरक्की के नए रास्ते भी खुल रहे हैं.
मोबाइल की पैठ बढ़ने के साथ ब्रोकपा नौजवानों ने सरहद पार गिलगित के नौजवानों के साथ सोशल मीडिया के ज़रिए संपर्क भी कायम किया है.
ल्हामो बताती हैं, 'वो लोग भी हमारी भाषा में बात करते हैं और गर्व से कहते हैं कि वो आर्य हैं,'
आज की पीढ़ी के कई ब्रोकपाओं से हमने पूछा कि वो अपने गांवों में ही रोज़गार को प्राथमिकता देंगे या मौका मिलने पर किसी शहर में बसना पसंद करेंगे. हमें उत्तर मिला-जुला मिला.
गैलसन के लफ्ज़ों में 'रोज़ी-रोटी के साथ ही अपनी टपहचान' को बचाए रखना आज हमारे लिए सबसे बड़ा मसला है.'
21वीं सदी के इन शुद्ध आर्यों की जंग रियासतों के लिए नहीं, रोज़गार के लिए है. लेकिन अगर ये पहचान गंवाकर मिली तो इस जंग में जीत अधूरी ही रहेगी.
बीसवीं सदी तक माना जाता रहा कि इंडो-यूरोपीय भाषा बोलने वाला ये समूह मध्य एशिया से तकरीबन 2000-1500 ईसा पूर्व भारत आया होगा.
मतभेद इस बात पर रहा कि ये लोग हमलावर थे या फिर फिर भोजन के बेहतर मौके तलाशने वाले घुमंतु. पिछले 2 दशकों में आर्यों को भारतीय का मूल निवासी बताने वाली थ्योरी ने भी ज़ोर पकड़ा है.
ब्रिटेन की हडर्सफील्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मार्टिन पी रिचर्ड्स की अगुवाई में 16 वैज्ञानिकों के दल ने सच जानने के लिए मध्य एशिया, यूरोप और दक्षिण एशिया की आबादी के वाई-क्रोमोज़ोम का अध्ययन किया. वाई-क्रोमोज़ोम सिर्फ पिता से पुत्र को मिलता है.
इस शोध के मुताबिक कांस्य युग (3000-1200 ईसा पूर्व) में पलायन करने वालों में ज़्यादातर पुरुष होते थे.
पिछले साल मार्च में छपे इस रिसर्च पेपर ने लिखा है, 'हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि स्त्रियों के जीन्स लगभग पूरी तरह देसी हैं और 55 हज़ार पहले यहां बसे पहले इंसानों से काफी मेल खाते हैं लेकिन पुरुषों के जीन्स अलग हैं जिनका ताल्लुक दक्षिण-पश्चिम एशिया और मध्य एशिया से रहा है.'
हालांकि शोध का दावा है कि पलायन का ये सिलसिला हज़ारों साल तक चला होगा.
अगर आर्य वाकई मध्य एशिया के कैस्पियन सागर के आसपास घास के मैदानों से निकलकर दक्षिण एशिया आए होंगे तो बहुत मुमकिन है कि उनका रास्ता गिलगित-बल्टिस्तान से होकर गुज़रा हो.
गैलसन भी ब्रोकपाओं के डीएनए की जांच के लिए कोशिश कर रहे हैं.
उनका भी मानना है कि इस विषय पर अभी और पड़ताल की ज़रूरत है. 'आर्यों की ऐतिहासिक छवि विजेताओं की रही है. यही वजह है कि आज के ब्रोकपा युवाओं में इस पहचान को लेकर उत्साह बढ़ा है लेकिन हम मानते हैं कि इस दावे की और ज़्यादा खोजबीन की ज़रूरत है.'
इंटरनेट के आने के बाद ब्रोकपाओं की इस पहचान ने दुनिया भर के लोगों का ध्यान खींचा है. इन गांवों में जर्मन महिलाओं के 'शुद्ध आर्य बीज' की चाह में यहां आने के किस्से मशहूर हैं.
साल 2007 में फिल्मकार संजीव सिवन की डॉक्यूमेंटरी में एक जर्मन महिला कैमरे पर ये बात स्वीकार करती सुनी जा सकती है.लेकिन बटालिक में दुकान चलाने वाले इस समुदाय के एक शख्स ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, 'एक जर्मन महिला ने कई साल पहले मुझे लेह के होटलों में अपने साथ रखा. गर्भवती होने के बाद वो महिला जर्मनी वापस लौट गई. कुछ साल बाद वो अपने बच्चे के साथ मिलने वापस भी आई थी.'रोकपाओं की मौजूदा पीढ़ी में पढ़ाई पर ख़ासा ज़ोर है. लड़कियों को पढ़ने और करियर बनाने के लिए बराबरी के मौके मिलते हैं लेकिन नौकरियां सीमित हैं.
कमाई का सबसे बड़ा ज़रिया या तो खुबानी की बाग़वानी या फिर सेना और बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन से मिलने वाली मज़दूरी है.
बिजली अब भी सुबह-शाम सिर्फ एक घंटे रहती है. लेकिन जैसे-जैसे सैलानियों की आमद बढ़ रही है, तरक्की के नए रास्ते भी खुल रहे हैं.
मोबाइल की पैठ बढ़ने के साथ ब्रोकपा नौजवानों ने सरहद पार गिलगित के नौजवानों के साथ सोशल मीडिया के ज़रिए संपर्क भी कायम किया है.
ल्हामो बताती हैं, 'वो लोग भी हमारी भाषा में बात करते हैं और गर्व से कहते हैं कि वो आर्य हैं,'
आज की पीढ़ी के कई ब्रोकपाओं से हमने पूछा कि वो अपने गांवों में ही रोज़गार को प्राथमिकता देंगे या मौका मिलने पर किसी शहर में बसना पसंद करेंगे. हमें उत्तर मिला-जुला मिला.
गैलसन के लफ्ज़ों में 'रोज़ी-रोटी के साथ ही अपनी टपहचान' को बचाए रखना आज हमारे लिए सबसे बड़ा मसला है.'
21वीं सदी के इन शुद्ध आर्यों की जंग रियासतों के लिए नहीं, रोज़गार के लिए है. लेकिन अगर ये पहचान गंवाकर मिली तो इस जंग में जीत अधूरी ही रहेगी.
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